द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की आर्थिक रीढ़ टूट चुकी थी।
लंदन बमों से तहस-नहस था, खजाना खाली था। भारत अब दौलत का नहीं, बोझ का प्रतीक बन गया था।
अब वे न खुद को चला सकते थे, न भारत पर शासन कर सकते थे।
गांधी जी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन‘ (1942) ने ब्रिटिश शासन को हिला दिया,
लेकिन असली डर तो था हथियारबंद विद्रोह का।
1945 में क्लेमेन्ट एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी सत्ता में आई। उन्होंने महसूस किया:
“अब भारत को जबरन रोकना संभव नहीं। बेहतर होगा कि उसे स्वतंत्रता दी जाए।“
लेकिन ये निर्णय आदर्श नहीं, मजबूरी का परिणाम था।
वे जानते थे – अगर अब नहीं गए तो पूरे भारत में सशस्त्र क्रांति फूट पड़ेगी।
ब्रिटेन ने अपने अंतिम दांव के रूप में फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई।
सच्चाई यही है…
ब्रिटेन ने हमें आज़ादी नहीं दी – वह भाग खड़ा हुआ।
भारत का जनमानस बग़ावत की ज्वाला बन चुका था।
ये आज़ादी खैरात नहीं थी – बलिदान, संघर्ष और साहस से छीनी गई थी।
अब सच्चाई को उजागर करें।
हमारी नई पीढ़ी को बताएं –
हमने आज़ादी माँगी नहीं, ली थी।