पिछले 150 वर्षों से, दुनिया को यह सिखाया गया कि मनुष्य बंदरों से विकसित हुआ। लेकिन क्या यह विज्ञान है या मानसिक गुलामी? यह ब्लॉग उजागर करता है कि कैसे ब्रिटिश काल में भारतीय इतिहास और वेदों को मिटाने के लिए यह ‘सत्य’ गढ़ा गया।
सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि 19वीं और 20वीं सदी में इन सिद्धांतों को लाने का उद्देश्य क्या था। यूरोपीय शक्तियों के सामने दो बड़े लक्ष्य थे:
जब तक दुनिया को भारत की प्राचीन संस्कृति, विज्ञान, और समृद्धि की जानकारी थी – यूरोप श्रेष्ठ नहीं बन सकता था। इसलिए उन्होंने “विकासवाद” का झूठ फैलाया।
चार्ल्स डार्विन का विकासवाद कहता है – “मनुष्य करोड़ों वर्षों में बंदर से विकसित हुआ।”
लेकिन स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले “नेब्रास्का मैन”, “जावा मैन”, आदि प्रमाण बाद में झूठे निकले।
इसके बावजूद किताबें छपी, पाठ्यक्रम बनाए गए, और पूरी दुनिया के बच्चों को यह सिखाया गया।
बच्चों के लिए शिक्षक ईश्वर के समान होते हैं। किताब में छपी तस्वीरें, वैज्ञानिकों के नाम देखकर वे बिना प्रश्न पूछे मान लेते हैं।
बड़े होने के बाद भी विज्ञान के नाम पर कुछ भी स्वीकार करना आम हो गया है – चाहे वह तथ्यहीन ही क्यों न हो।
डार्विन का सिद्धांत यह मानने पर मजबूर करता है कि मानव एक “अज्ञानी जानवर” से विकसित हुआ। लेकिन भारत के वेद, उपनिषद, आयुर्वेद, योग – हजारों वर्षों पहले अत्यंत उन्नत समाज का प्रमाण देते हैं।
क्या वे बंदर थे जो योग सिखाते थे? क्या आयुर्वेद बंदरों ने रचा था?
👉 आध्यात्मिक चेतना खो रही है
👉 लालच, हिंसा और भोग की संस्कृति बढ़ रही है
👉 जीवन का उद्देश्य सिर्फ “भौतिक सुख” रह गया है
यह विकास है या “पतन”?
हमें यह तय करना है कि हम कौन हैं – देवता के अंश या बंदरों की संतान?
अब समय है कि हम अपनी वैदिक परंपरा, आत्मा की चेतना और भारत की प्राचीन महिमा को फिर से पहचानें।